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समकालीन कहानी को परिभाषित करें

समकालीन कहानी
  समकालीन का अर्थ है, आज के दौर की कहानियां यह वह कहानियां है| जो आज के समय में एवं आज की परिस्थितियों से साक्षात्कार कराती  है| यह अपने समय के यथार्थ को पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत करती है| एवं इनमें कोई पूर्वाग्रह नहीं होता है यहां  पर या भी मायने रखता है| कि समकालीन लेखक अपने समय के सवालों के प्रति कितना गंभीर है,  मधुरेश यह कहते हैं:- समकालीन होने का अर्थ है समय की व्यावहारिक और रचनात्मक दबाव को झेलते हुए उन से उत्पन्न तनाव और टकराहटो के बीच अपनी सृजनशीलता द्वारा अपने होने को प्रमाणित करना। समकालीन लिखक की पहचान यही  हो सकती है,  कि अपने समय के सवालों के प्रति वह किस तरह की प्रतिक्रिया करता है और लेखक में उन सवालों के लिए जो जगह वह निर्धारित रहता है,  उन सवालों के प्रति वह कितना गंभीर है कहीं ना कहीं इन सब से ही उसकी समकालीनता  सुनिश्चित  होती है ।

सक्रिय कहानी क्या है

सक्रिय कहानी
     राकेश वर्षिक के द्वारा शुरू किया गया था। उन्होंने अपनी पत्रिका मंच 79 के माध्यम से सक्रिय कहानी आंदोलन को प्रस्तुत किया। इस कहानी के कहानीकार जिन्होंने इस आंदोलन में पूर्ण सहयोग दिया चित्रा मुद्गल, रमेश बत्रा, स्वदेश दीपक आदि हैं। यह वह दौर था जब की साहित्य जगत में आम आदमी के संघर्ष को दिखाया जा रहा था। जबकि राकेश वत्स से अब इस आंदोलन में उस आम आदमी के संघर्ष की के सक्रिय एवं संगठित करते हुए प्रस्तुत करते कर रहे हैं। सक्रिय कहानी की अवधारणा पर रख राकेश वत्स लिखते हैं " सक्रिय कहानी का सीधा मतलब है आम आदमी के चित्रात्मक ऊर्जा और जीवंतता की कहानी। उस समाज, एहसास और बोध की कहानी जो आम आदमी की वेवसी वैचारिक निहत्थेपन एवं नपुंसकता से निजात दिल कर पहले स्वयं अपने अंदर की कमजोरियों के खिलाफ खड़े होने के लिए खड़ा करने की जिम्मेवारी अपने सिर पर लेते हैं"। यह कहानी आंदोलन संघर्षरत मनुष्य के शोषण से मुक्ति दिलाना चाहता है|और शोषण से यह मुक्ति हैं चरण परिणीति है| सक्रिय कहानी के प्रमुख कहानी रमेश बत्रा की जंगली जुगराफिया, कुमारसंभव की आखरी मोड, राकेश वत्स की काले पेड़, सुरेंद्र सुकुमार की उनकी फैसला जैसी कहानियां हैं। यह कहानी आंदोलन शुरुआती चरण में अपनी पहचान तो कर पाता है, किंतु लंबे समय तक नहीं चल पाता है क्योंकि, इसमें वैचारिकता तो है लेकिन, रचनात्मकता का आकलन नहीं है।

समान्तर कहानी किसे कहते है

समान्तर कहानी 

सचेतन कहानी की बाद हिंदी में और अकहानी और सहज कहानी आंदोलन भी हुआ। कहानी के विभिन्न आंदोलनों ने साहित्य के विभिन्न मूल्यों में बांट दिया। और कहानी अपने मूल गंतव्य से हट गई उस यथार्थ को प्रस्तुत नहीं कर पा रही थी, जिसको लेकर कहानी ने अपनी विकास यात्रा प्रारंभ की थी। आठवीं दशक में कमलेश्वर ने सारिका पत्रिका का संपादन कार्य आरंभ किया उस दौर में लोग आंदोलन के गुट बंदी से आदि अजीज आ चुके थे। उस दौर में कमलेश्वर ने लोगों से वादों से मुक्त होकर कहानी लिखने की बात कहीं कहानी के संदर्भ में वे प्रतिबद्धता को भी नकार देते हैं। और यह भी आवाहन करते हैं कि यह समांतर कहानी पीढ़ी मुक्त कहानी होगी अर्थात सभी उम्र एवं विचारधारा के लोग एवं लेखा को को के साथ मंच साझा करने की बात कही गई। समांतर कहानी के केंद्र में आम आदमी के संघर्ष पूरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया जाता है। समांतर कहानी नए मनुष्य एवं समाजवादी समाज की स्थापना  के संदर्भ में आम आदमी की चिंता को अपने केंद्र में रखकर चलने की दावा प्रस्तुत करती है। यह वह दौर था, जब पूरे देश में जन आंदोलन हो रहे थे, इंदिरा गांधी एक तानाशाही सरकार भी चला रही थी और जन आंदोलन को कुचल रही थी, इसी दौर में जी पी का संपूर्ण क्रांति का आंदोलन भी हो रहा था, आम आदमी हाशिए पर पड़ चुका था। उसी दौर में कमलेश्वर सरिका पत्रिका के संपादकीय में लिखते हैं "इतिहास जब नंगा हो जाता है तो संपूर्ण संघर्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है यह पूरा देश एक भयंकर दल बन चुका है और इसे दलदल बनाने वाले लोग परकोटो पर जाकर  बैठ गए हैं और दलदल में फंस गए आम आदमी मरण का उत्सव मना रहे हैं " अपने संवेदनशीलता के माध्यम से कमलेश्वर क्रांति के लिए ये तैयार खड़े दुविधा रहित आम आदमी के बातचीत को कह रहे हैं ।समांतर कहानी आंदोलन में सारिका पत्रिका में समांतर कहानी विशेषांक प्रकाशित होता है इस विशेषांक में भीष्म साहनी के वांग्चु, हृदयेश की गुंजल्क, मणि मधुकर की विस्फोटक जैसी कहानियां प्रकाशित होती है। इस प्रकार कहानी में समांतर कहानी के आंदोलन शुरू हो जाता है इतना ही नहीं समांतर कहानी विशेषांक के रूप में विभिन्न भाषाओं की समांतर कहानी की विशेषांक निकाले गए। और साथ ही देशभर में समांतर कहानी पर गोष्ठी का आयोजन किया गया है। और समानांतर कहानी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया गया। इन कहानियों का केंद्र बिंदु आम आदमी का जीवन संघर्ष है और मनुष्य नए युग के नए प्रश्नों का सामना कर रहा था यह मनुष्य जो संघर्ष रत्न है, नए मूल्यों की स्थापना के दिशा में भी प्रयासरत है। और इस आम आदमी के संघर्ष को संपूर्णता के साथ प्रस्तुत करना कि समांतर कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इसके अन्य प्रमुख:- कहानीकार गोविंद मिश्र, जितेंद्र भाटिया, इब्राहिम शरीफ, हिमांशु जोशी, स्वदेश दीपक आदि| प्रमुख कहानियों में सतीश जायसवाल कि जाने किस बंदरगाह पर, कमलेश्वर की जोखिम, जितेंद्र भाटिया की शहादत नामा, पाल भसिम कि सौदा, जैसी कहानियां प्रमुख है। समांतर कहानी वास्तव में एक ऐसा आंदोलन था, जिसने भारतीय कथा साहित्य में पुनः आदमी को स्थापित कर दिया और कहानियों को आम आदमी के संघर्ष से जोड़कर नए तेवर एवं नए हलचल पैदा कर दिए।
सक्रिय कहानी

अकहानी

अकहानी
अकहानी नई कहानी की विद्रोह में जन्म लेने वाला एक आंदोलन था| नई कहानी की भोगे हुए यथार्थ एवं अनुभव की प्रमाणिकता जैसे नारों के विरुद्ध सशक्त करवाई होती है| उसे अकहानी में देखा जाता है| इस आंदोलन पर फ्रांस के एंटीस्टोरी का प्रभाव है| इसके साथ-साथ अस्तित्व वादी चिंतक के शास्त्र कामू के दर्शन का भी पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है|और अकहानी आंदोलन कथा के संं स्वीकृत आंदोलन का अस्वीकार कर देता है और इसमें बड़े ही तन्मयता के साथ मनुष्य की पीड़ा, कुंठा, अजनबी व्यर्थाताबोध को चित्रित किया गया है| और मनुष्य की यथार्थ चेतना को भी नए परिपेक्ष में परिभाषित करने का प्रयास किया गया है| वास्तव में यह वह दौर था जब पुराने जीवन मूल्य बिखरने लगे थे|आम आदमी की हताशा बढ़ने लगी थी| और रोजी रोटी की तलाश में जब वह हारता है तो कुंठित एवं शूद्र होने लगता है|वह दौर था जब हिंदी में अकविता की दौर भी शुरू होता है|
अकहानी के प्रमुख कहानीकार:- जगदीश चतुर्वेदी, राजकमल चौधरी, रवींद्र कालिया,ममता कालिया, दूधनाथ, मुद्राराक्षस आदि हैं| इन सभी कहानीकारों ने अपने समय के यथार्थ को पूरी तन्मयता के साथ प्रस्तुत किया है| और कहानियों में मनुष्य की पीड़ा, कुंठा मनुष्य के विघटन की त्रासदी, परेशानी को पूरी मार्मिकता के साथ अंकित किया है| यदि कहानी की दृष्टि से देखा जाए तो दूधनाथ सिंह की रक्तपात, श्रीकांत वर्मा की शव यात्रा, रवींद्र कालिया के सिर्फ एक दिन, राजकमल चौधरी की अग्नि स्थान ,एक अजनबी के लिए एक शाम जैसी कहानियां जैसी कहानियां प्रमुख हैं|
     अकहानी आंदोलन में मनुष्य के कुंठित काम को भी पूरी यथार्थाता के साथ प्रस्तुत किया| कहानीकारों ने काम विकृतियों को चित्रण करते हुए उन्मुक्त यौन संबंधों को भी वकालत की है| इस प्रकार के प्रमुख कहानीकार राजकमल चौधरी और जगदीश चतुर्वेदी हैं अकहानी की सबसे बड़ी सीमा यह भी मन जाती है| साहित्यकार कमलेश्वर धर्मयुग में ऎयासो प्रेत विद्रोह लिखते हैं| और उसमें कहते हैं कि हिंदी कहानी अपनी मूल्य से भटक गई है|अकहानी आंदोलन का शिल्पी भी अपने संवेदना के कारण एक विशिष्ट स्वरूप में उभरता है| इसमें जो नए प्रयोग किए गए वह लोगों को अपनी ओर  आकर्षित भी करता है| इन कहानियों में कथा तत्व न के बराबर है|और जिन कथा का वर्णन है, वह असत्य और व्योरबार है| इन कहानियों में सूक्ष्मता का तत्व अधिक है| और इसका सबसे बड़ा प्रभाव पड़ता है की कहानी उत्तरोत्तर जटिल होती जाती है| और कथा रस गायब हो जाता है|वस्तुतः कहानी आंदोलन अपनी सीमाओं के बावजूद अपने समय को प्रभावित करती है| और मनुष्य के अधिकार को आधार बनाकर साहित्य में आंदोलन के रूप में जन्म लेती है|

सहज़ कहानी किसे कहते है


सहज कहानी
  सहज कहानी आंदोलन अमृत राय के द्वारा शुरू किया गया था| इसके मूल्य में यह उद्देश्य था कि कहानी की खोई हुई सहायता को फिर से बहाल किया जाए उसे सहेजा जाये| सहरसा का व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं:-" मोटे रूप में इतना ही कह सकते हैं कि सहज वह है- जिसमें आडंबर नहीं है, बनावट नहीं है, ओढ़ा हुआ  मैनरिज्म नहीं है या मुद्रा दोष नहीं है, आईने के सामने खड़े होकर आत्मरती के भाव से अपने ही यंग प्रत्यंग को अलग अलग कोणों से निहारने का मोह नहीं है, किसी का अंधाअनुकरण नहीं है" वस्तुतः अमृतराय अपने इस आंदोलन के माध्यम से सादगी के सौंदर्य शास्त्र को कहानी में स्थापित करना चाहते थे| यहां ध्यान देने की बात है कि अमृत राय प्रेमचंद्र के पुत्र हैं उनका सारा जोर कहानी को सहज एवं प्रभावित करने पर था| परंतु यह आंदोलन अधिक नहीं चल पाया है|

नई कहानी


नई कहानी:-
      आजादी के बाद नई कहानी आंदोलन का जन्म होता है| इस आंदोलन में कहानी के परंपरागत प्रतिमान को नकार दिया और स्वयं के मूल्यांकन के लिए अपनी नई कसौटी तय की|  नई कहानी में नई शब्द कहानी से नई को अलग करने के लिए प्रयोग नहीं हुआ है| बल्कि यहां नई से तत्पर है- नई संवेदना, नई दृष्टि, नया शिल्प यदि नई कहानी आंदोलन के युगबोध को देखा जाए तो यह लगभग 19 से 50 से 60 के दौर को दर्शाता है| आजादी के बाद लोगों के मन में नए सपने थे उस समय देश में नए विश्वविद्यालयों की स्थापना हो रही थी, कल कारखानों की स्थापना हो रही थी, पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश की आर्थिक विकास की नीतियां तय की जा रही थी| यह वही दौर था जब कि समाज में मध्य वर्ग अपनी आकांक्षाओं को संजोकर आगे बढ़ना चाह रहा था| आजादी के बाद समाज में व्यापक परिवर्तन के फल स्वरुप पुराने रिश्तेदारीया टूट रही थी, परिवार का परंपरागत ढांचा ढह रहा था, स्त्री-पुरुष के संबंधों में भी बदलाव आ रहा था, दलितों और वंचितों में भी नई उम्मीदें जग रही थी| क्योंकि उन्हें सामान मताधिकार प्राप्त हुआ था, परंतु 1960 तक पहुंचते-पहुंचते पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों में बिखराव होने लगता है, ऐतिहासिकता से मोहभंग होने लगता है, मध्य वर्ग का जीवन कठिन हो जाता है, नैतिक व सामाजिक मूल्यों का पतन होने लगता है, यहां पंचशील सिद्धांत भी लगभग विफल होने लगता है| यह सभी नई कहानी का विषय बनते हैं| और कथानक में भी स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्म तत्वों की प्रधानता होने लगती है| इसी प्रकार शिल्प के स्तर पर  प्रतीकात्मकता, सांकेतिकता, बिंबात्मकथा की प्रधानता होने लगती है नए कहानीकार अपने कहानी की मूल्यांकन की नई कसौटीया तय करते हैं| नामवर सिंह ने कहानी नई कहानी पुस्तक के माध्यम से इसे व्यापक कलेवर प्रदान किया|
इस युग के प्रमुख कहानीकार :- नई कहानी में प्रमुख रूप से राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, और कमलेश्वर का नाम अधिक प्रसिद्ध है| यह आंदोलनकारी बदले हुए यथार्थ और नए अनुभव संबंधों की प्रमाणिक अभिव्यक्ति पर बल देते हैं| इनके अनुसार नए कहानीकारों ने परिवेश की विश्वसनीयता, अनुभूति की प्रमाणिकता और अभिव्यक्ति की ईमानदारी का प्रश्न उठाया है| और यह भी बताया है कि नई कहानी का मूल उद्देश्य पाठक को उसके समकालीन यथार्थ से परिचित करवाना है| नई कहानीकारों में फणीश्वर नाथ रेणु, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, उषा प्रियंवदा, धर्मवीर भारती, मनु भंडारी, निर्मला वर्मा, शैलेश मटियानी आदि हैं|इन कहानीकारों ने नई कहानी के आंदोलन में अपने युगीन यथार्थ की मार्मिक एवं प्रमाणिक अभिव्यक्ति की है| राजेंद्र यादव ने एक दुनिया समानांतर नामक पुस्तक का संपादन करके नई कहानी का प्रमाणिक संग्रह प्रस्तुत किया है| कुछ प्रमुख कहानियों:- में अमरकांत की जिंदगी और जोंक, उषा प्रियंवदा की मछलियां, मनु भंडारी की यही सच है, मोहन राकेश की एक और जिंदगी, राजेंद्र यादव की टूटना आदि प्रमुख हैं| नई कहानीकारों में फणीश्वर नाथ रेणु ने एक आंचलिक कथाकार के तौर पर अपनी पहचान  बनाई ह|  तो निर्मल वर्मा ने शहरी जीवन के अकेलेपन को संत्रास तथा कुंठा को अभिव्यक्त किया ह| इसी प्रकार अमरकांत ने शहरी मध्यवर्ग के सुख-दु:ख, शोषण तथा अन्याय को पूर्ण  मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है|
     नई कहानी के बाद 1960 से 70 के बीच विभिन्न कहानी आंदोलनों का जन्म होता है| यह वह दौर था जब की नई कहानी के मूल्य और शिल्प अपनी चमक खोते जा रहे थे विभिन्न प्रकार की रूढ़ियों में फंसकर नई कहानी धीरे-धीरे निस्तेज होती जा रही थी| नई कहानी देश और समाज की असफलताओं कमियों को इस रूप में नहीं प्रकट कर पा रही थी| जिससे आम आदमी की पीड़ा सही रूप में व्यक्त हो सके सातवें दशक तक आते-आते पंचवर्षीय  योजनाएं एवं पंचशील सिद्धांत भी विफल हो चुके थे |राजनीति का स्तर पर नैतिकता और मर्यादा लगभग छीन-बिन हो चुके थे| दलों का टूटना बिखरना कुछ इस इस रूप में हो चुका था, जिससे राजनैतिक आदर्शों को भी प्रभावित करना शुरू किया| इस दौर में इसका प्रभाव साहित्य जगत पर भी पड़ता है| विभिन्न साहित्यकार भी अपने अपने घडो की लामबंदी करने लगते हैं| एक घड़ा घडा दूसरे घड़े को प्रभावित करने के लिए साहित्यिक गोष्टी का सहारा लेने लगते हैं| इस सबके बीच सातवें दशक में कई कहानी आंदोलन का जन्म होता है| जैसे- सचेतन कहानी, अकहानी कहानी, सहज कहानी आदि|

जनवादी कहानी क्या है

जनवादी कहानी

  जनवादी कहानियों का दौर 1980 के बाद शुरू होता है। सन 1982 में दिल्ली में जनवादी लेखक संघ की स्थापना होती है। और इसकी स्थापना के बाद से इस कहानी आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है किंतु यह भी ध्यान रखने की बात है कि, हिंदी साहित्य में जनवादी की अवधारणा कोई नई अवधारणा नहीं है। इसकी शुरुआत प्रकाश चंद्र गुप्त द्वारा 1933 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "हिंदी साहित्य की जनवादी परंपरा" में कबीर से देखते हैं। बाद में इस परंपरा को हुए प्रेमचंद से भी जुड़ते हैं ।और वह कहते हैं कि प्रेमचंद ने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की जब स्थापना करते हैं| तो उसकी मूल में जन ही था इस पृष्ठभूमि में प्रेमचंद के बाद निराला, यशपाल, रांगेय राघव, शेखर जोशी को रखते हैं। और इस आंदोलन को जो 1983 में खड़ा हुआ था, अचानक खड़ा हुआ आंदोलन नहीं मानते हैं ।जनवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि को उस काल में होने वाले राजनीतिक स्थिति में देखा जा सकता है। कांग्रेस की पराजय होती है। जनता पार्टी की सरकार बनती है जनता पार्टी की सरकार एक व्यापक असंतोष का भी परिणाम थी। इस दौर में विभिन्न राज्यों में भी जन आकांक्षाओं के कारण गैर कांग्रेसी सरकार की गठन होती है। यह सरकार कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा होकर अपनी सरकार तो बनाती है किन्तु वर्ग चरित्र के रूप में अलग नहीं थी। अपनी कार्यपद्धती में काफी हद तक शोषक वर्ग के पक्ष में कार्य करने वाली थी, और यही कारण है जनता की आआकांक्षाओं  को पूरा नहीं कर पाती राजनीतिक रूप से गैर कांग्रेसी सरकार को सिर्फ इतना ही है उन्होंने राजनीति में कांग्रेसियों बर्चस्व तोड दिया। साहित्य के स्तर भी यह वह था जब की साहित्य कहानी जैसे आंदोलन आम आदमी के संघर्ष करके संघर्षशील चेतना और वर्ग सुधार के समुची अवधारणा को दूधलाने की कोशिश कर रहे थे। और इसी पृष्ठभूमि में जनवादी लेखक संघ की स्थापना होती है। जनवादी आंदोलन करने का स्वर प्रदान करने का उस दौर के पत्रिका में भी हो रहा था, कोलकाता से कलम, दिल्ली से कथन, मथुरा से उतार्ध, रतलाम से कंक पत्रिका जनवादी कहानी पर चर्चा करना शुरू कर दिए थे। जनवादी का वैचारिक आधार मार्क्सवादी है और अपने मूल प्रकृति में यह जन सम्मान की संघर्ष की पक्षधर है। यह संघर्ष बहूयानी है और जनवादी कहानी में संघर्षरत पात्र अपने अधिकारों को लेकर पूरी तरह से सहज है। संघर्ष की स्थिति में वह निर्णय ले सकता है और अंतिम दम तक संघर्ष करता है। जनवादी कहानी में सर्वाधिक बल सर्वहारा वर्ग एवं मध्यम वर्ग द्वारा किए जा रहे शोषण विरोधी दल पर है। जनवादी कहानियों में जन समस्याओं को सीधी सहज भाषा में सहज शिल्प के साथ प्रस्तुत किया जाता है। जनवादी कहानीकार पूंजीपति वर्ग के कुचक्र और शोषण वर्ग को बेनकाब करता है। और हाशिए पर पड़े मेहनतकश आदमी को निर्णायक संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। जनवादी कहानीकार जन संघर्ष को पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करने पर बल देता है। जनवादी परंपरा के प्रमुख कहानीकार असगर वजाहत, उदय प्रकाश, नमिता सिंह, स्वयं प्रकाश, रमेश बत्रा आदि हैं। प्रमुख कहानियों में असगर वजाहत की मछलियां, स्वयं प्रकाश की सूर्य कब निकलेगा, रमेश बत्रा की जिंदा होने के खिलाफ, विजयकांत की ब्रह्मफांस, उदय प्रकाश की मोसा जैसी कहानियों को देखा जा सकता है।

आलोचना को परिभाषित करें

 आलोचना का तात्पर्य है, किसी वस्तु, रचना या कृति का मूल्यांकन करना| किसी भी रचना को समझने के लिए आलोचना को समझना आवश्यक है| बिना आलोचना...