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लोकवादी आलोचना को बताये


        जिस आलोचना पद्धति में आलोचक लोक धर्म, लोकमंगल, लोक मर्यादा आदि प्रतिमानो को आधार बनाकर आलोचना के प्रतिमान स्थापित करता है, उसे लोक वादी समीक्षक कहा जाता है| इन आधारों एवं इन कसौटीयो पर ही आलोचक सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना करता है| इस पद्धति के प्रमुख आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं उनकी रचना "लोकमंगल की साधना अवस्था एवं लोकमंगल की सीधा अवस्था" है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल उन्हीं प्रतिमनो के कारण लोकवादी समीक्षक कहे जाते हैं|

ऎतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना


       इस आलोचना पद्धति में सबसे प्रमुख योगदान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का है| ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना में किसी कृति का मूल्यांकन इतिहास एवं संस्कृति की परंपरा एवं उसके व्यापक आधारों के आधार पर की जाती है| ऐतिहासिक आलोचना के अनुसार किसी मानव अथवा मानव समुदाय की चेतना विभिन्न प्रकार के परिवेश एवं देशकाल को बदलने के बावजूद भी किसी एक निश्चित परंपरा से जुड़ी हुई होती है| इसी प्रकार सांस्कृतिक आलोचना, व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में किसी कृति का मूल्यांकन करता है| और संस्कृति के साथ उसके महत्व को जोड़कर देखता है, जैसे आचार्य द्विवेदी अपनी पुस्तकों "हिंदी साहित्य की भूमिका", "हिंदी साहित्य का आदिकाल", "कबीर" के माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य की परंपरा को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं जातीय तत्वों से जोड़ा और यह भी बताया कि वर्तमान हिंदी साहित्य हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक भी है| द्विवेदी जी प्रथम आलोचक थे जिन्होंने कबीर को हिंदी साहित्य में प्रमुख स्थान दिलाया| द्विवेदी जी के अतिरिक्त विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, परशुराम चतुर्वेदी आदि प्रमुख आलोचक इस श्रेणी में गिने जाते हैं|

आलोचना को परिभाषित करें

 आलोचना का तात्पर्य है, किसी वस्तु, रचना या कृति का मूल्यांकन करना| किसी भी रचना को समझने के लिए आलोचना को समझना आवश्यक है| बिना आलोचना...