आलोचना की शुरुआत वास्तविक तौर से आधुनिक या भारतेंदु युग से माना जाता है| यही वह समय है,जब साहित्य में विभिन्न विधाओं का जन्म हो रहा है| आलोचना उसी दौरान शुरू होती है और एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हुई|
इसके विकास को कई काल खंडों में विभाजित करके देखा जा सकता है कुछ आलोचकों ने शुक्ल जी को केंद्र बिंदु मानकर हिंदी आलोचना को तीन आधारों पर विकसित किया शुक्लपूर्व युग, शुक्लयुगीन, शुक्लोत्तर। परंतु वर्तमान आजादी के बाद समीक्षा की नई पद्धतियों का विकास होता है और समकालीन आलोचना का दौर भी आता है| अतः कुछ आलोचक निम्न आधारों पर आलोचना के विकास को बताते हैं-
१. आधुनिक काल के पूर्व की आलोचना
२. आधुनिक काल युग की आलोचना-
(1) भारतेंदु युग
(2) द्विवेदी युग
(3) शुक्ल युग
(4) शुक्लोत्तर युग
(5) स्वातंत्र्योत्तर, और
(6) समकालीन
(2) द्विवेदी युग
(3) शुक्ल युग
(4) शुक्लोत्तर युग
(5) स्वातंत्र्योत्तर, और
(6) समकालीन
आधुनिक काल के पूर्व की आलोचना:-
आधुनिक काल के पूर्व आदिकाल एवं भक्तिकाल हिंदी साहित्य के प्रारंभिक दो काल रहे हैं|परंतु इस काल में आलोचना का अधिक विकास नहीं हो पाया|'विश्वनाथ त्रिपाठी' यह मानते हैं कि "आलोचना कवि या कवि कर्म का मूल्यांकन है जो कि गंभीर रूप में गद्य में ही संभव है अतः आदि काल एवं भक्ति काल में आलोचना का स्वरूप विकसित नहीं दिखाई देता| इस काल के कवि संस्कृत के काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों से प्रभावित होते हैं| और इन से प्रेरणा लेकर काव्य रचना करते हैं|ये कवि नवीन सिद्धांत को नहीं बनाते और ना ही पूर्व भारतीय समकालीन कवि या रचना का गंभीर मूल्यांकन करते हैं|ये कवि अपनी रचनाओं के लिए काव्य के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं और इस क्रम में समकालीन भाषा या किसी विचार पर सूत्र के रूप में अपनी बात प्रस्तुत करते हैं|" जैसे कबीर दास लिखते हैं:-
"संसकीरत है कूप जल,
भाखा बहता नीर"
परंतु यह गंभीर आलोचना की श्रेणी में नहीं आता|
रीतिकाल में आचार्य कवियों ने प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्रों से प्रेरणा लेकर विभिन्न लक्षण ग्रंथों की रचना की है| 'विश्वनाथ त्रिपाठी' का मानना है कि "हिंदी आलोचना का विकास रीतिकाल के थोड़ा पहले शुरू होता है|" आगे चलकर विश्वनाथ त्रिपाठी यह भी कहते हैं कि "रीतिकाल में हिंदी का जो काव्यशास्त्र रचा गया वह संस्कृत काव्यशास्त्र के संप्रदायों की नकल है|" कहा जाता है कि "हिततरीगरव" के लेखक "कृपाराम" हिंदी के सर्वप्रथम काव्य शास्त्री थे उन्होंने 16वीं शताब्दी में ही थोड़ा बहुत रास निरूपण किया था| लेकिन हिंदी में काव्य रिति का सम्यक समावेश पहले-पहल 'आचार्य केशव' ने ही किया|
स्वयं शुक्ला जी कहते हैं कि "केशव के 50 वर्षों बाद रीति ग्रंथों की जो परंपरा हिंदी में चली उसने परवर्ती आचार्यों के आधार पर काव्यशास्त्री विवेचना की|फलत: रीतिकालीन आचार्यों द्वारा हिंदी में संस्कृत साहित्य शास्त्र के विकास क्रम की एक संक्षिप्त उदाहरण प्रस्तुत की गई|"
रीतिकाल में रीतिबद्ध आचार्यों ने जैसे केशवदास,चिंतामणि,कुलपति मिश्र आदि ने लक्षण ग्रंथों की रचना की|यह सैद्धांतिक समीक्षा को कुछ हद तक तो आधार देते हैं,किंतु व्यवहारिक समीक्षा में कोई प्रगति नहीं होती क्योंकि इस काल में भी गध का विकास नहीं हो पाया है|डॉ रामचंद्र तिवारी यह कहते हैं कि- "रीतिकाल में व्यवहारिक आलोचना का रूप संस्कृत के सुत्र शैली के रूप में प्रचलित रहा वह भी पध रूप में जैसे बिहारी की रचना-
"सतसैया के दोहरे ज्यो नाविक के तीर,
देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर।"
इसी प्रकार इस काल में कवियों की तुलना भी की गई जैसे-
देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर।"
इसी प्रकार इस काल में कवियों की तुलना भी की गई जैसे-
"सूर-सूर तुलसी ससि, केशव उड़़गन दास|
अब के कवि घघोत सम, जह- तह करे प्रकास||"
परंतु आलोचना का यह स्वरूप ना तो गंभीर है और ना ही प्रभावपूर्ण इसमें सिर्फ प्रभावआत्मक,अभिव्यक्ति और रचनात्मक मूल्यांकन ही नजर आता है| यह खंडन-मंडन कि वह शैली है,जो साहित्य एवं आलोचना के सही स्वरूप को व्यक्त नहीं कर पाता|
अब के कवि घघोत सम, जह- तह करे प्रकास||"
परंतु आलोचना का यह स्वरूप ना तो गंभीर है और ना ही प्रभावपूर्ण इसमें सिर्फ प्रभावआत्मक,अभिव्यक्ति और रचनात्मक मूल्यांकन ही नजर आता है| यह खंडन-मंडन कि वह शैली है,जो साहित्य एवं आलोचना के सही स्वरूप को व्यक्त नहीं कर पाता|
आधुनिक युग की आलोचना:-
भारतेंदु युग:-
हिंदी साहित्य का आधुनिक काल कई खंडों में विभाजित है| जिसमें पहला खंड 'भारतेंदु युग' के नाम से जाना जाता है|भारतेंदु युग में गद्य का विकास हो जाता है|जिसके कारण आलोचना के वास्तविक स्वरूप की शुरुआत होती है।इस युग में कई आलोचक महत्वपूर्ण रहे जैसे-भारतेंदु हरिश्चंद्र,बालकृष्ण भट्ट,बद्रीनारायण चौधरी(प्रेमघन),आदि|इस युग में सैद्धांतिक समीक्षा की शुरुआत होती है और व्यवहारिक समीक्षा पत्र-पत्रिकाओं से आगे बढ़ती है|इस काल के विषय में विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना है कि पश्चिम के प्रभाव गध के विकास और युगबोध के कारण पश्चिमी आलोचना का प्रभाव तो दिखाई देता है,किंतु इस काल में विकसित होने वाली आलोचना उन विधाओं में से है,जो पश्चिमी साहित्य की नकल नहीं है, बल्कि अपने साहित्य को समझने बुझने और उसकी उपयोगिता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण विकसित हुई|
इस काल के सैद्धांतिक आलोचना की बात की जाए तो भारतेंदु के "नाटक निबंध" से इसकी शुरुआत होती है|भारतेंदु अपने निबंध में 'हिंदी के नाटकों का स्वरूप कैसा होना चाहिए' इस पर अपने विचार प्रकट करते हैं और इन विचारों को ही आलोचना की शुरुआत माना जा सकता है|यह कहते हैं कि बदलती रुचि और युगबोध के अनुसार नाटककार को नाटक की रचना करनी चाहिए|इस युग में एक विशिष्ट स्वरूप में आलोचना का विकास तो नहीं होता किंतु आलोचना दृष्टि का विकास होता है|दृष्टि की शुरुआत पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से होती है जिसमें कुछ हद तक सैद्धांतिक परंतु व्यावहारिक आलोचना का विकास होता है|भारतेंदु भी पत्रकार थे|उनकी पत्रिका "कवि वचन सुधा" और "हरिश्चंद्र मैगजीन" में विभिन्न कृतियों की समीक्षा प्रकाशित होती रहती हैं|इसी प्रकार उस काल में 'बालकृष्ण भट्ट' के संपादन में "हिंदी प्रदीप", 'नारायण मिश्र' के संपादन में "ब्राम्हण" तथा 'बद्रीनारायण चौधरी(प्रेमघन)'के संपादन में "आनंद कादंबिनी" में विभिन्न आकृतियों की समीक्षाएं प्रकाशित होती रहती थी|इससे हिंदी के क्षेत्र में आलोचना दृष्टि का पर्याप्त विकास होता है| बालकृष्ण भट्ट ने "हिंदी प्रदीप" के लेखों के माध्यम से पाठकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पर्याप्त विकास किया|वेदों को अपोरूष कहा जाता था,किंतु भट्ट जी वेदों को अपोरुश मानने से इनकार कर देते थे|उनकी आलोचना दृष्टि में वैज्ञानिकता का समावेश है| इनकी पत्रिकाओं में देश की सामाजिक-आर्थिक चिंतन की धारा को विशेष महत्व दिया|
इस काल में व्यावहारिक आलोचना की शुरुआत 'बद्रीनारायण चौधरी(प्रेमघन) और बालकृष्ण भट्ट' द्वारा प्रारंभ होती है| जिसके अंतर्गत संपूर्ण कृति के गुण-दोषों की विवेचना का कार्य आरंभ होता है|प्रेमघन ने अपनी पत्रिका "आनंद कादंबिनी" में बाणभट्ट के "कदंबिनी" की प्रशनशनात्मक समीक्षा की और इसी में 'बाबू गदाधर सिंह'द्वारा लिखे गए "बंग विजेता"नामक बांग्ला उपन्यास की विस्तृत समीक्षा उपन्यास की तत्वों के आधार पर की| इसी प्रकार 'लाला श्रीनिवास दास' के "संयोगिता स्वयंवर"नाटक की समीक्षा अपने पत्र में की, इसी प्रकार भट्ट ने "हिंदी प्रदीप" में सच्ची समालोचना के नाम से लाला श्रीनिवास दास के संयोगिता स्वयंवर नामक नाटक की कटु आलोचना की|इस प्रकार भारतेंदु युग में एक तरफ परंपरागत सिद्धांतों को विकसित करने का प्रयास हुआ,वहीं दूसरी तरफ व्यवहारिक परंपरा का आरंभ हुआ|इसी काल में भट्ट ने 'श्रीधर पाठक'द्वारा अनुवादित 'गोल्ड स्मिथ' की रचना "हरमीट"की आलोचना "हिंदी प्रदीप" में की और यह एक रचनात्मक आलोचना थी,किंतु इसमें भट्ट जी का भाषाई दृष्टिकोण भिन्न रूप में सामने आता है|वे लिखते हैं "हमारे मित्र पाठक महाशय ने अपने परिश्रम से हमें अच्छी तरीके से बता दिया है कि कविता के पश्चिमी संस्कार हमारे लिए मनोरंजक और दिलचस्प नहीं हो सकते| इसमें संदेह नहीं अंग्रेजी अत्यंत विस्तृत भाषा और उन्नति के शिखर पर चढ़ी है,परंतु कविता के अंत में हमारी देसी भाषाओं से कभी होड़ नहीं कर सकती|" भट्ट जी मानते हैं कि हमारे लिए अंग्रेजी काम की है किंतु हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति हमारी अपनी भाषा में ही हो सकती है|"
इस युग में ही साहित्य के इतिहास की दो पुस्तकें लिखी गई जिसमें पहली 'शिव सिंह सिंगर'की "शिव सिंह सरोज है"और दूसरी 'जॉर्ज ग्रियर्सन' की "द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ नॉर्थन हिंदुस्तान"है|इन दोनों ही इतिहास की पुस्तकों में छोटे-मोटे रूप में ही सही आलोचना दृष्टि मौजूद है| इस काल की हिंदी समीक्षा में राष्ट्रीयता, नैतिकता, उपयोगितावादी दृष्टिकोण प्रमुख था|इस काल की आलोचना में यह ध्यान देने योग्य बात है कि साहित्यकार ही पत्रकार है और वह नागरिक होने के साथ राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाला प्रबुद्ध व्यक्ति भी है|अतः इस काल में अपने विचार प्रकट करने के लिए पत्र पत्रिकाएं ही माध्यम थी|जिसमें वह अपने युग के साथ-साथ साहित्यिक कृतियों की भी समीक्षा करते हैं|यही कारण है कि इस काल की समीक्षा सामाजिकता से लिपटी है,परंतु बाद में चलकर आलोचना की स्वरूप अधिक स्पष्ट होता है|बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा अन्य लेखक द्विवेदी युग में हिंदी आलोचना को नई दशा एवं दिशा प्रदान करते हैं|
द्विवेदी युग:-
हिंदी साहित्य का दूसरा चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है| इस काल में आलोचना की नई पद्धतियों के साथ-साथ व्यवहारिकता का भी विकास होता है| विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना है कि 'भारतेंदु युग के साहित्य पर लेखकों के सहृदयता और जीवंतता की छाप है, तो द्विवेदी युग के साहित्य पर कर्तव्य परायणता उपयोगिता की|' द्विवेदी जी साहित्य को उपयोगिता की कसौटी पर आंकते थे और उसे ज्ञान राशि का संचित कोष मानते थे| उनका प्रभाव प्रत्येक साहित्यांग पर पड़ा| वे स्वयं एक सर्वमान्य आलोचक थे| आलोचक 'निर्मला जैन' का यह मानना है कि "द्विवेदी युग के लेखक एवं आलोचक प्राचीन भारत के ज्ञान-विज्ञान की खोज करना चाहते थे और पश्चिम के स्वरूप को समझ कर अपने देशवासियों को इस ज्ञान से परिचित कराना चाहते थे|"
यह ध्यान देने की बात है कि दिवेदी युग ने जितने अधिक साहित्यकार, आलोचक अपने युग में दिए, विभाग के कार्यों में बहुत कम मिलते हैं| इस युग के प्रमुख आलोचक- महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्यामसुंदर दास, मिश्र बंधु, पद्म सिंह शर्मा, बालमुकुंद गुप्त थे|
द्विवेदी युग में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों ही आलोचना पद्धतियों का विकास हुआ| इस युग में ऐसे विद्वान थे, जो भारत एवं पश्चिम दोनों जगत के श्रेष्ठ विद्वान थे| यह वही समय है, जबकि "जॉर्ज ग्रियर्सन", "बुलकर" जैसे विद्वान भारतीय विद्या पर विभिन्न प्रकार के कार्य कर रहे थे| यदि सैद्धांतिक आलोचना की बात की जाए, तो "नागरी प्रचारिणी" पत्रिका में 'गंगा प्रसाद अग्निहोत्री' का "समालोचना" निबंध प्रकाशित हुआ| इसमें समालोचना के गुणों का वर्णन किया है| इसी पत्रिका में 'जगन्नाथ दास रत्नाकर' ने "समालोचनादर्श" प्रकाशित किया| इसमें समालोचना के आदर्शों को बताया है|
इस काल के प्रमुख आलोचक महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं| इन्होंने अपनी आलोचना में हिंदी कवियों का कर्तव्य निर्धारित किया| वे कहते हैं कि "हिंदी कवि का कर्तव्य यह है, कि वह लोगों की रूचि का विचार रख कर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे की साधारण पढ़े लिखे लोग भी पुरानी कविता के साथ-साथ नई कविता पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाए|" द्विवेदीयुगीन आलोचना में हिंदी भाषा को काव्य एवं गध दोनों के लिए स्वीकार कर लिया गया तथा द्विवेदी जी ने अपनी पत्रिका द्वारा हिंदी भाषा को स्थापित कर दिया| इस काल में आलोचना की विभिन्न पद्धतियों का विकास होता है, जिसमें सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों शामिल हैं जैसे- शास्त्रीय आलोचना, तुलनात्मक आलोचना, अनुसंधान परक आलोचना, व्याख्यात्मक आलोचना|
द्विवेदी युग में रितिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा का पालन करते हुए, कई विद्वानों ने काव्यशास्त्र सिद्धांतों एवं ग्रंथों की रचना की और शास्त्रीय सिद्धांतों को नए स्वरूप में विकसित किया| इन ग्रंथों में शास्त्रीय सिद्धांतों को आलोचना के रूप में विकसित किया| साथ ही उर्दू, फारसी आदि भाषा के संपर्क से नए पक्षों का समावेश होने लगा| इस पद्धति के प्रमुख रचनाकार हैं- अयोध्या सिंह उपाध्याय (रस कलश), भगवानदीन (अलंकार मंजूषा), सीताराम शास्त्री (साहित्य सिद्धांत), जगन्नाथ भानु (काव्य प्रभाकर)|
द्विवेदीयुगीन आलोचना में सिर्फ प्राचीन सिद्धांतों का ही विवेचन नहीं होता, बल्कि नवीन सिद्धांतों पर भी कार्य किया गया| जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने "रसा रंजन" में यह बताया कि सरल भाषा का प्रयोग करना चाहिए| मनोरंजन के स्थान पर युगबोध, नैतिकता, मर्यादा, देश-प्रेम आदि से संबंधित विषयों को कुछ भागों में व्यक्त करना चाहिए| इस दौरान द्विवेदी जी ने रितिकालीन "श्रृंगारीकता" की भी आलोचना की और कहा "इससे ना तो देश का कल्याण है, ना समाज का|" इसी प्रकार अपने "कवि कर्तव्य" नामक निबंध में वह कवि को कर्तव्य बोध याद दिलाते हैं| इसी श्रेणी के अन्य आलोचक- बाबू गुलाबराय, श्याम सुंदर दास, पुन्नालाल बख्शी हैं|
द्विवेदी युग में ही तुलनात्मक आलोचना की विशेष चर्चा होती है| इस श्रेणी के प्रमुख आलोचक- पदम सिंह शर्मा, "मिश्र बंधु" (श्याम बिहारी मिश्र, सुकदेव बिहारी मिश्र, गणेश बिहारी मिश्रा) है| तुलनात्मक आलोचना में साहित्यकारों ने संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं एवं साहित्य के बीच तुलना करके तुलनात्मक आलोचना को नए स्वरूप में स्थापित किया| जैसे सबसे पहले 'पद्म सिंह शर्मा' ने हिंदी के बिहारी तथा फारसी के कवि शादी के बीच तुलनात्मक आलोचना की| इसी प्रकार मिश्र बंधुओं ने "हिंदी नवरत्न" नामक ग्रंथ में नौ कवियों (सूर, तुलसी, देव, बिहारी, केशव, भूषण, सेनापति, चंद्र, हरिश्चंद्र) के बीच तुलनात्मक आलोचना की और इनको श्रेणीबध करके प्रकाशित किया| इसी प्रकार लाला भगवानदीन ने बिहारी और देव पुस्तक में बिहारी को देव से बड़ा सिद्ध किया|
द्विवेदी युग में ही अनुसंधानपरक आलोचना भी विकसित होती है| '1921 में बाबू श्यामसुंदर दास काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में नियुक्त हुए और इसके बाद शोध के आधार पर ज्ञात तथा अज्ञात तथ्यों को अन्वेषण करके नवीन ज्ञान का प्रस्तुत किया|' श्रेणी के प्रमुख आलोचक- श्यामसुंदर दास, राधा कृष्ण दास, सुधाकर द्विवेदी हैं| द्विवेदी युग में ही व्यवहारिक आलोचना की व्याख्यात्मक पद्धति का विकास होता है| यह पद्धति विशेषकर शुक्ल जी के काल में काफी विकसित हुई|
द्विवेदी युग में व्यवहारिक आलोचना पत्र- पत्रिकाओं के माध्यम से आगे बढ़ती है| द्विवेदी जी के संपादन में "सरस्वती" पत्रिका एक मानक स्तंभ की तरह थी और इसमें विभिन्न पुस्तकों की समीक्षा प्रकाशित होती थी| इसी तरह की अन्य पत्रिकाएं "इंद्र", "माधुरी", "समालोचक", "नागरी प्रचारिणी" पत्रिका आदि| व्यवहारिक आलोचना की बात की जाए तो "नागरी प्रचारिणी" पत्रिका में 'जगन्नाथ दास रत्नाकर' ने अंग्रेजी के साहित्यकार "पोप" के "एसे ऑन क्रिटिसिज्म" का अनुवाद "आलोचनादर्श" के नाम से प्रकाशित किया और इस तरह साहित्य समीक्षा का स्वरूप और आदर्श पर विचार- विमर्श प्रारंभ होता है|
इसी प्रकार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कालिदास की निरंकुशता को व्यवहारिक समीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया और अपने लेखों में संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी साहित्य में जो महत्वपूर्ण जानकारियां थी, उसे हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने का कार्य किया| 'आचार्य शुक्ल' इसे "एक मुहल्ले की बात दूसरे तक पहुंचाने का कार्य कहते हैं", किंतु यह ध्यान रखने की बात है कि इसके कारण ही हिंदी पाठकों को एक विस्तृत ज्ञान सुलभ हो सका| इस काल में हिंदी आलोचना की विभिन्न पद्धतियों का विकास होता है| इस काल में हिंदी आलोचना पाश्चात्य साहित्य से भी प्रभावित होती है और प्रभाव ग्रहण कर एक नए रूप में सामने आती है| द्विवेदीयुगीन आलोचना में कवी के विशेष युग, गुण- दोष, विवेचन के साथ है, उसकी रचनाओं का मूल्यांकन होता है| साथ ही देश एवं समाज के व्यापक परिपेक्ष में साहित्य की गुणवत्ता को जांचा जाता है| इसी काल में साहित्य के इतिहास ग्रंथ "मिश्रबंधु विनोद" भी प्रकाशित होता है| जिसमें थोड़े- मोडे रूप में सही आलोचना के तत्व के दर्शन होते हैं| सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी आलोचना में वैज्ञानिकता की परंपरा का जो प्रवर्तन हरिश्चंद्र ने किया उसे नवीन ज्ञान के आलोक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा श्यामसुंदर दास ने विकसित किया| इस आलोचना पद्धति पर ही खड़े होकर भविष्य में हिंदी आलोचना अपने मुखर रूप में सामने आती है|
महावीर प्रसाद द्विवेदी:-
यह इस युग के प्रमुख आलोचक हैं और द्विवेदी युग नाम भी इन्हीं के नाम पर पड़ा है| इन्होंने "सरस्वती पत्रिका" में कवि "कर्तव्य नामक" निबंध में कवि कर्तव्य को बताया| इसी प्रकार द्विवेदी जी रितिकालीन नायिका भेद एवं लक्षण ग्रंथों की आलोचना करते हैं, तथा नैतिकता एवं मर्यादावादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं| द्विवेदी जी हिंदी भाषा स्थापित करते हैं और इसके साथ अपने अनुवाद कार्य द्वारा संस्कृत, बंगला, मराठी और उर्दू साहित्य की विभिन्न महत्वपूर्ण सामग्री पाठक तक पहुंचाते हैं| इसी प्रकार द्विवेदी जी कविता के रूप संबंधी विषय पर भी अपने विचार प्रकट करते हैं| जिस प्रकार निराला हिंदी में मुक्त छंद के समर्थक थे, उसी प्रकार द्विवेदी जी भी कविताओं को किसी विशेष छंद में बांधने के समर्थक नहीं थे| वह खुद कहते हैं "पध के नियम कवि के लिए बेड़ियों के समान है|..........| कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनता पूर्वक प्रकट करें|" द्विवेदी जी कविता के भाषा को सरल रूप में प्रस्तुत करने पर बल देते हैं| वह अलंकारिक भाषा को अधिक महत्व नहीं देते| इसी प्रकार द्विवेदी जी युगबोध एवं नवीनता के पोषक अचार्य हैं| वह हिंदी के प्रथम लोकवादी अचार्य हैं| वह परंपरा की शक्ति एवं सीमा को समझ कर उसके विकास में योगदान की शक्ति रखते हैं| इसी प्रकार द्विवेदी जी प्रबंध और मुक्तक में से किसी को काव्य में अधिक श्रेष्ठ नहीं बताते, बल्कि युगबोध के अनुसार ही इनके प्रयोग पर बल दिया| किंतु इतना अवश्य है कि थोड़े रूप में ही सही व प्रबंध काव्य के समर्थक थे|
इस प्रकार द्विवेदी जी सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक आलोचना द्वारा अपने युग के लिए ही नहीं, बल्कि बाद के युग के लिए भी प्रमुख स्तंभ के रूप में सामने आते हैं|
मिश्र बंधु:-
द्विवेदी युग में प्रसिद्ध आलोचक मिश्र बंधु भी हैं इस श्रेणी में तीन आलोचक हैं गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र और सुकदेव बिहारी मिश्र| उन्होंने "हिंदी नवरत्न" नामक समालोचनात्मक ग्रंथ लिखा| जिसमें हिंदी के प्राचीन एवं आधुनिक साहित्य में से चुने हुए कवियों की समीक्षा की गई| नवरत्न में नौ कवि हैं= (गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, देव, बिहारी, भूषण और मतिराम, केशव, दास, कबीर दास, चंदबरदाई, हरिश्चंद्र)
हिंदी साहित्य में तुलनात्मक आलोचना का गंभीर विकास इन्हीं के द्वारा शुरू हुआ| मिश्र बंधुओं ने हिंदी के इन नौ कवियों के परस्पर तुलना द्वारा तुलनात्मक आलोचना को गंभीर रूप प्रदान किया|
इन्होंने "हमीरहट" की भी समालोचना की और भाषा के ऊपर भी गंभीरता पूर्वक विचार किया| इसी प्रकार मिश्र बंधुओं ने आलोचना के अलावा हिंदी साहित्य का इतिहास भी लिखा, यह ग्रंथ "मिश्र बंधु विनोद" के नाम से प्रतिष्ठित है| इस ग्रंथ में बंधु ने विभिन्न कालों की तुलनात्मक विवेचना की|
मिश्र बंधुओं ने इस सिद्धांत को केंद्र में रखा और श्रृंगार को रसराज के रूप में प्रतिष्ठित किया| श्रृंगार को रसराज के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए आधुनिक तर्कों का सहारा लिया| साथ ही पश्चात जगत के आलोचकों को भी अपनी रचनाओं में महत्व दिया|
श्यामसुंदर दास
इनका नाम द्विवेदी युग में एक प्रमुख आलोचक के तौर पर लिया जाता है| इन्होंने भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास और साहित्य की आलोचना तीनों क्षेत्रों में योगदान दिया| इन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में अनुसंधान परक आलोचना में सबसे अधिक योगदान दिया|
अपने ग्रंथ "साहित्य लोचन" में आलोचना के सिद्धांतों को प्रकट किया| इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि इसमें भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही बातों का समन्वय किया| इन्होंने प्लेटो, अरस्तु, हीगल आदि के साथ भारतीय आचार्यों की तुलना की और यह बताया कि साहित्य में दोनों के समन्वय से ही नए विचार प्राप्त हो सकते हैं|
बाबू श्यामसुंदर दास ने रस और अलंकार पर भी अपनी आलोचना दृष्टि को प्रकट किया और यह बताया कि आधुनिक काल के अनुसार ही इनका प्रयोग करना चाहिए| उन्होंने हिंदी साहित्य में इसकी प्राचीनता एवं व्याप्ति पर भी विचार किया एवं यह माना कि केवल आधुनिक काल की खड़ी बोली तक ही हिंदी साहित्य का क्षेत्र नहीं, बल्कि प्राचीन परंपरा एवं लोक में भी उसकी प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है| उनका मानना था कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से भले ही ब्रज, अवधि और राजस्थानी में भिन्न-भिन्न माना जाए, परंतु जहां तक साहित्य का प्रश्न है, तो उनमें प्रवृत्तिगत स्वामी आता है| बिना किसी कठिनाई के हिंदी का क्षेत्र व्यापक हो जाता है|
इस प्रकार बाबू श्यामसुंदर दास ने भाषा एवं साहित्य दोनों को अपनी आलोचना दृष्टि से मुखर किया|
शुक्ल युग:-
शुक्ल जी का काल हिंदी साहित्य में विशुद्ध आलोचना का काल माना जाता है| यह वह काल है, जिसे गद्य साहित्य में तृतीय स्थान काल भी कहते हैं| इस काल के प्रमुख आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं, इनके अलावा कृष्ण शंकर शुक्ल, विश्वनाथ प्रताप मिश्र, गुलाब राय प्रमुख हैं|
द्विवेदी युग की आलोचना पद्धति को इस काल में विकसित एवं समृद्ध करने का श्रेय आचार्य शुक्ल को है| इनका मानना था कि "द्विवेदी युग में आलोचना का काल प्रारंभ हो चुका था, किंतु आलोचना भाषा के गुण, दोष, रस, अलंकार आदि बहिरंग बातों तक ही सीमित थी| इस आलोचना में कवि की अंत:वृत्ति का अधिक दर्शन नहीं है|"
इसमें कवि की मानसिक प्रवृतियां अधिक दिखाई नहीं पड़ती| शुक्ल जी ने आलोचना में पहली बार कवि के अंतः वृत्ति की छानबीन की और वे अपनी आलोचना "सूर, तुलसी, जायसी" में व्यवहारिक रूप में प्रस्तुत की|
शुक्ल जी एक मर्यादावादी, रसवादी, नीति वादी और लोक वादी आलोचक हैं| इन्होंने "कविता क्या है?" काव्य में रहस्यवाद आदि में अपने काव्यवादी सैद्धांतिक पक्षों को प्रस्तुत किया है| उनकी किताबों "चिंतामणि", "रस मीमांसा" आदि में उनकी सैद्धांतिक आलोचना को देखा जा सकता है| इसी प्रकार "सूर, तुलसी, जायसी" आदि उनकी व्यवहारिक आलोचना के उदाहरण हैं|
कृष्ण शंकर शुक्ल ने अपनी पुस्तक "केशव की काव्य कला" और "कविवर रत्नाकर" में केशवदास और जगन्नाथदास रत्नाकर के काव्य के विभिन्न पक्षों को उजागर किया| इसी प्रकार उन्होंने यद्यपि, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाओं का विरोध तो नहीं किया (मुखर विरोध) नहीं किया, किंतु केशव दास के काव्य कला की सारगर्भित विवेचना अवश्य की है|
विश्वनाथ मिश्र ने अपनी पुस्तक "हिंदी साहित्य का अतीत" में रीतिकाल के आचार्य केशव बिहारी घनानंद आदि की अनुसंधान परक आलोचना की| जिसके कारण हिंदी साहित्य में नवीन विषयों तथा ज्ञान का समावेश हुआ|
बाबू गुलाब राय ने अपनी पुस्तकों "काव्य के रूप" में अपने सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है| इन्होंने भी आचार्य शुक्ल के समान भारतीय एवं पाश्चात्य सिद्धांतों के समन्वय से नवीन सिद्धांतों की स्थापना की|
आचार्य रामचंद्र शुक्ल:-
आचार्य शुक्ल, शुक्ल युग के प्रमुख आलोचक हैं| उनकी आलोचना पद्धति में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों आलोचनाओं को देखा जा सकता है| इन्होंने अपने समय में भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों के समन्वय से एक नवीन आलोचना पद्धति को जन्म दिया| जिसने हिंदी आलोचना को नई दशा एवं दिशा दी| हिंदी साहित्य का आधुनिकीकरण शुक्ल जी के काल में प्रारंभ हुआ और उन्होंने अपने समय में रहते हुए हिंदी साहित्य को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया|
शुक्ल जी की सैद्धांतिक आलोचना:-
(1) शुक्ल जी ने आलोचना में बहिरंग एवं अंतः प्रवृत्तियों, दोनों के समावेश तथा छानबीन की ओर ध्यान दिया| शुक्ल जी कहते हैं कि "हिंदी में द्विवेदी युग के अंतर्गत आलोचना अधिकतर रस, छंद, अलंकार आदि बहिरंग तत्वों तक ही सीमित रही| इसमें कवि की मानसिक प्रवृतियां बहुत कम दिखाई देती हैं| अतः शुक्ल जी गद्य साहित्य के तृतीय स्थान काल में गध के अंत:प्रवृत्ति के छानबीन की बात करते हैं| शुक्ल जी अपने आलोचना में अनुवाद कार्य के द्वारा भी भाषा विज्ञान तथा साहित्य के ऊपर अपने सिद्धांत विवेचन प्रस्तुत करते हैं| जैसे उन्होंने "एडिशन" के "ऐसे ऑन इमैजिनेशन" का अनुवाद "कल्पना के आनंद" नाम पर किया और इसमें कल्पना तथा अनुभूति के बीच के सिद्धांतों को भारतीय परिपेक्ष में प्रस्तुत किया|
(2) शुक्ल जी पश्चिम के प्राणी तत्ववेता "हैकल" से प्रभावित है|"हैकल" की पुस्तक "रिडील ऑफ द यूनिवर्स" में प्रकृति की व्याख्या आंनदवादी भौतिक सिद्धांत से की गई| शुक्ल जी इसी आधार पर यह बात मानते हैं कि, धर्म की परलौकिक व्याख्या नहीं बल्कि इहलौकिक व्याख्या होनी चाहिए|
शुक्ल जी कहते हैं कि "आधुनिक विज्ञान की बातों से ही भारतीय चिंतन धारा को देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह धारा सिर्फ परलौकिक नहीं है बल्कि वह लोक व्यवहार और समाज के विकास से भी जुड़ा है|" वह यह भी मानते हैं कि "धर्म को विकास के ऐतिहासिक परिपेक्ष में देखने से ही साहित्य की समझ बेहतर हो सकती है|" शुक्ल जी का यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण सिद्धांत के रूप में आलोचना में आता है, क्योंकि शुक्ल जी साहित्य को इसी आधार पर जगत से जोड़ते हैं और अध्यात्म को कला के क्षेत्र में खारिज कर देते हैं| वह साहित्य को लोक के व्यापक परिपेक्ष में देखते हैं, इसलिए उन्हें लोक वादी आचार्य कहते हैं|
कुछ आलोचक शुक्ल जी की सैद्धांतिक आलोचना "तेन" से प्रभावित मानते हैं| "तेन" ने जाति, वातावरण एवं सन, इन तीन आधारों पर रचना के मूल्यांकन की बात की| इस विधि को प्रत्यक्षवादी या विद्यावादी दृष्टि भी कही जाती है| साहित्य के इतिहास में शुक्ल जी ने कई स्थलों पर उसे प्रयोग किया|
भाषा के संबंध में शुक्ल जी की आलोचना वैज्ञानिक है| हिंदी "शब्द सागर" के संपादन में भाषा के प्रति शुक्ल जी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हैं| भाषा में भी वह मानते हैं कि वैज्ञानिक विचारों को वैज्ञानिक भाषा ही वहन कर सकती है, जिस प्रकार विचार वैज्ञानिक होते हैं उसी प्रकार भाषा वैज्ञानिक होती है|
शुक्ल जी काव्यशास्त्र के विवेचन में अपने दृष्टिकोण से भाव, विभाव और रस की व्याख्या फिर से करते हैं| शुक्ल जी का मानना है कि "अलौकिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भाव की पुनरव्याख्या करनी चाहिए|" शुक्ल जी यह मानते हैं कि "भाव और मनोविकार दोनों का ही साहित्य में प्रमुख स्थान है और दोनों की व्याख्या वे विकासवादी पद्धति से करते हैं, भाववादी से नहीं|" "रस मीमांसा" में लिखते हैं कि "सुख और दुख की इंद्रिय वेदना के अनुसार पहले पहल राग और द्वेष आदिम प्राणियों में प्रगट हुए, जिनसे दीर्घ परंपरा के अभ्यास द्वारा आगे चलकर वासनाओं और प्रवृत्तियों का सूत्रपात हुआ| क्रोध, भय आदि पहले वासना के रूप में थे, फिर भाव रूप में आए| भाव की विशेषता यह है कि उसमें प्रत्यय बोध होता है|" प्रत्यय बोध का तात्पर्य है, सुख, दुख का विषय बोध शुक्ल जी का मानना है कि भाव में विवेक युक्त प्रवृत्ति उपस्थित होती है और उसकी प्रतिष्ठा से कर्म क्षेत्र का भी विस्तार होता है| इसी आधार पर लोकमंगल के आदर्श को प्रतिष्ठित किया जाता है और काव्य कला को सामाजिक चेतना से जोड़ा जाता है| इसी आधार पर रीतिकाल की कुलवादी प्रवृत्तियों का शुक्ल जी निषेध करते हैं|
शुक्ल जी भाव योग की प्रतिष्ठा करते हैं और इसे ज्ञान योग एवं कर्म योग के समान खड़ा कर देते हैं| शुक्ल जी भाव एवं ज्ञान को एक दूसरे का विरोधी नहीं मानते| उनका मानना है कि जैसे- जैसे ज्ञान का विकास होता है, वैसे- वैसे ज्ञान का प्रसार भी होता है| इसी कारण मनुष्य पशु की तुलना में कुछ अलग है| वह इसी कारण "कामायनी" में चित्रित श्रद्धा और ईर्ष्या के रूपों से सहमति व्यक्त नहीं करते| शुक्ल जी अपनी आलोचना पद्धति में बाहरी जगत और मानव जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए साहित्य के सिद्धांतों को स्थापित करते हैं और इसी आधार पर सामंती साहित्य का विरोध करते हैं और देश भक्ति तथा जनतंत्र की साहित्यिक परंपरा का समर्थन करते हैं|
शुक्ल जी एक ऐसे समीक्षक हैं, जिन्होंने साहित्य की आलोचना और आलोचना के सिद्धांत में अंतर किया है| साहित्य की आलोचना को वे "समालोचना" कहते हैं जबकि इसके सिद्धांत को "काव्यमीमांसा" कहते हैं|
शुक्ल जी पश्चिम के कलावाद और मध्ययुग के अलंकारवाद में दोनों की प्रवृत्तियों का विरोध भी किया और उनकी नई व्याख्या भी की| पश्चिम के कलावाद और अभिव्यंजनावाद की हिंदी कविता में नकल पर उन्होंने प्रहार किया, किंतु छायावाद की अभिव्यंजना शैली का मूल्यांकन करते हुए छायावादी कवियों की अलंकार प्रयोगों को सराहा भी है| शुक्ल जी के सैद्धांतिक विवेचन में बिंबो को अत्यधिक महत्व दिया है| वह कहते हैं "कविता में सिर्फ अर्थ ग्रहण ही पर्याप्त नहीं होता, बिम्ब ग्रहण भी अपेक्षित होता है|
अत्यंत महत्वपूर्ण
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