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हिंदी कहानी के उद्भव और विकास

हिंदी कहानी का उद्भव और विकास
           हिंदी कहानी का उद्भव और विकास आधुनिक काल में होता है| कहानी आधुनिक गद्य विधा है| प्रारंभिक दौर में कहानियां रहस्य और रोमांच से भरपूर  थी साथ ही उसमें मनोरंजन के तत्व अधिक थे, परंतु धीरे-धीरे कहानियां यथार्थ से जुड़ने  लगती हैं| हिंदी कहानी के समूचे विकास क्रम को प्रेमचंद को केंद्र में रखकर बांटा जा सकता है| जैसे -आरंभिक हिंदी कहानियां या प्रेमचंद पूर्व युग ,प्रेमचंद युगीन  हिंदी कहानी, प्रेमचंद उत्तर हिंदी कहानी, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी  तथा समकालीन हिंदी कहानी|

प्रेमचंद्र उत्त्तर कहानी


प्रेमचंद्र उत्तर कहानी 

       प्रेमचंद्र के बाद हिंदी कहानी कई मायनों में प्रेमचंद्र के यथार्थवादी चित्रण का बहूयामी  में प्रसार करती हुई दिखाई देती है| इस युग में दो अस्पष्ट धाराएं दिखाई देती है-एक प्रगतिशील एवं मार्क्सवादी धारा का नेतृत्व यशपाल कर रहे थे, तो दूसरी मनोविश्लेषण वादी धारा जिसका नेतृत्व इलाचंद्र जोशी, जैनेंद्र और अज्ञेय  रहे थे| ध्यान देने की बात है कि प्रेमचंद की कहानियों में समाजवाद एवं व्यक्तिवादी धारा दोनों ही दिखाई देती है लेकिन, प्रबलता समाजवादी या यथार्थवाद का अधिक है उसी युग में व्यक्तिवादी धारा भी विकसित होती है| जिसका नेतृत्व जयशंकर प्रसाद ने किया प्रेमचंद के बाद दो स्पष्ट धारा यथार्थवादी एवं मनोविश्लेषण के रूप में बट जाती है| यशपाल प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते हैं| वह अपनी कहानियों में सामाजिक शोषण, विषमता, अन्याय को विषय बना कर कहानियों को लिखते हैं इसके माध्यम से भी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, जीवन के संघर्ष, मूल्य एवं नैतिकता  के खोखले पन को उजागर करते हैं उन्होंने नैतिकता, धर्म, मर्यादा के खोखले पन पर तीव्र आघात  किया| उनकी कई कहानियों में व्यंग के स्वर भी दिखाई देते हैं इसके कारण कहानी की स्थूलता  समाप्त हो जाती है| और कहानी के सूक्ष्म संगठित व्यक्तित्व प्राप्त हो जाती है उनकी प्रमुख कहानियों में -कर्मफल, फूल की चोरी, आदमी का बच्चा, परदा, फूलों का कुर्ता, करवा का व्रत प्रमुख है| इस दृष्टिकोण से कहानियां लिखने वाले अन्य कहानीकार नागार्जुन, रांगे राघव, भैरव प्रसाद गुप्त प्रमुख है| रंगे राघव की कहानियां में विषय बंगाल का अकाल, देश का विभाजन, संप्रदायिकता, मजदूर की हड़ताल, बेरोजगारी, भुखमरी आती है| इन कहानियों के द्वारा वे  सामाजिक यथार्थ को ना केवल उद्घाटित करते हैं बल्कि, पाठकों में भी संघर्ष की चेतना पैदा करते हैं| इस प्रकार भैरव प्रसाद गुप्त ग्रामीण एवं शहरी परिवेश को आधार बनाकर मार्क्सवादी चेतन युक्त कहानियों को लिखते हैं| इनकी प्रमुख कहानियां सपने का अंत, सिविल लाइन का कमरा, ऐसी आजादी रोज रोज आदि  है|
     इसी काल में जैनेंद्र और इलाचंद जोशी ने मनोवैज्ञानिक यथार्थ को केंद्र में रखकर अपनी कहानियों में मानव मन को चित्रित  किया है और मानव मन की अटल गहराई में डूब कर उनके अंतः सत्य को उद्घाटित किया है| रचनाकारों पर फायड के मनोविश्लेषण बाद का प्रभाव है|इलाचंद जोशी की कहानियां फायड  की सिद्धांत का साहित्यिक रूपांतरण प्रतीत होती है| मनुष्य की वासनाओं कुंठाओं, ईर्ष्या, अहंकार इलाचंद्र जोशी के कहानी के प्रमुख विषय है| और इनके माध्यम से वे मनुष्य के असली रूप को जो मनुष्य के भीतर है, उसे उद्घाटित करने का प्रयास करते हैं| यही कारण है, कि इलाचंद्र जोशी की भाषा में व्यापक परिवर्तन दिखाई देता है क्योंकि, उनकी भाषा मनुष्य के जटिल मनोविज्ञान को प्रकट करने के कारण  दूरबोध प्रतीत होती है| और मिठास का तत्व गायब सा हो जाता है| उनकी शैली में प्रतीकात्मकता अधिक है इसकी कहानियां रोगी, परित्यक्ता, दुष्कर्मी, बदला आदि है| इनके द्वारा वर्णित पात्र मनुष्य का वह रूप है जो अत्यंत दुर्बल आत्मिक सीमित तथा कुंठित है|

प्रेमचन्द्रयुगीन कहानी

प्रेमचंदयुगीन कहानी



        प्रेमचंद हिंदी कहानी के स्तंभ माने जाते हैं| प्रेमचंद के आगमन से हिंदी कहानी को नया दशा एवं दिशा मिलती है| प्रेमचंद शुरुआती चरण में उर्दू में कहानियां लिखते हैं यह दौर 1907 का था, परंतु 1916 में उनकी कहानी "पंच परमेश्वर" सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित होती है| यहीं से हिंदी कहानी की दिशा भी परिवर्तित हो जाती है| प्रेमचंद ने हिंदी कहानी को रहस्य, रोमांच, कल्पना और मनोरंजन के आसमान से उतारकर धरातल के यथार्थ से जोड़ दिया| प्रेमचंद ने पहली बार हिंदी कहानी को मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक वर्णन से जुड़ा उन्होंने हिंदी कहानी में राजा और ईश्वर के स्थान पर दलित, दीन और शोषित मनुष्य को नायक के रूप में प्रस्तुत किया| वह हिंदी कथा संसार को सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक यथार्थ से परिचित करवाते हैं| प्रेमचंद पहली बार हिंदी कहानी के केंद्र में मानवीय संवेदना के सूक्ष्म पहलुओं को लाकर खड़ा कर देते हैं और यही कारण है कि हिंदी कथा साहित्य में यह काल प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है| इस युग में ही पहली बार हिंदी कहानी को स्वतंत्र व्यक्तित्व प्राप्त होता है| प्रेमचंद का युगबोध, यदि ध्यान से देखा जाए तो यह वह दौर है, जब भारत की राजनीति में गांधी जी का आगमन हो चुका है| भारत में सभी वर्ग स्वाधीनता की लड़ाई में खड़े हो गए हैं| सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से लोगों ने अपने शोषण का विरोध करना शुरू कर दिया है और युग का प्रभाव स्वाभाविक रूप से रचनाकार पर पड़ता है| यह वही दौर है जब वैश्विक स्तर पर प्रथम विश्व युद्ध लड़ा जाता है जिसके कारण बड़े पैमाने पर विनाश होता है| और लेखक यथार्थ और मनोविज्ञान के बीच मानवीय संवेदना को देख रहा होता है| प्रेमचंद ने अपनी आरंभिक कहानियों में गांधीजी के प्रभाव को ग्रहण किया है और इसी कारण कहानियों में शुरुआती चरण में आदर्शवादी और सुधारवादी कहानियां देखने को मिलती हैं| इन कहानियों में देशभक्ति, नैतिकता, सत्यनिष्ठा, कर्तव्य प्रणयता जैसे आदर्श देखने को मिलते हैं| इन कहानियों में प्रमुख है "नमक का दरोगा", "शतरंज के खिलाड़ी", "सत्याग्रह", "जुलूस", "बड़े घर की बेटी", "पंच परमेश्वर" आदि| प्रेमचंद अपनी कहानियों में जब दूसरे दौर की ओर चलते हैं तो उनका आदर्शवादी और सुधार वाद धीरे-धीरे जटिल यथार्थ की ओर मुड़ने लगता है| शुरुआती चरण में कहानियां अपने अंतिम चरण में युग परिवर्तन की घटना को दिखाती है लेकिन दूसरे दौर की कहानियों में क्रूर और अधिक  पैनापन होने लगता है| इन कहानियों में "सवा सेर गेहूं", "पूस की रात", "कफन", "बाबाजी का भोग", "सद्गति" जैसी कहानियां हैं| प्रेमचंद की कहानियों में सिर्फ कथानक के स्तर पर ही यथार्थ का वर्णन नहीं है, बल्कि शिल्प के स्तर पर भी यथार्थ मौजूद है| प्रेमचंद की कहानियों के कथानक में प्रेम प्रवाह, चरम सीमा में मार्मिकता, चित्रण की यथार्थता, भाषा की अभिव्यक्ति और  सादगी में पैनापन मौजूद है और शिल्प के स्तर पर भी  पैनापन देखा जा सकता है|
         प्रेमचंद का समय कहानी लेखन में 1916 से लेकर 1936 के बीच माना जाता है| उन्होंने अपने काल में लगभग 300 कहानियां लिखी हैं और यह कहानियां अपने आवरण, रूप रंग में प्रेमचंद के कथा शिल्प के क्रमिक विकास को दर्शाती है| प्रेमचंद के ही समानांतर सामाजिक यथार्थ को केंद्र में रखकर कई कहानीकार कहानियां लिखी हैं जैसे- विशंभर नाथ वर्मा कौशिक ने "ताई", "रक्षाबंधन", "विधवा" कहानी लिखी, सुदर्शन ने "हार की जीत", "सूरदास", "हेरा फेरी" कहानी लिखी, भगवती प्रसाद वाजपेई ने "मिठाई वाला", "निंदिया लाई" कहानी लिखी| यह कहानीकार यद्यपि प्रेमचंद के समान सामाजिक यथार्थ को केंद्र में रखकर कहानी लिखते थे लेकिन  इन्हें प्रेमचंद की तरह मानवीय संवेदना को उभारने में अधिक सफलता नहीं मिली, फिर भी इनकी कहानियां कलात्मक तौर पर पाठकों को प्रभावित करती हैं| इसी दौर में सरस्वती पत्रिका के समान ही इंदु पत्रिका प्रकाशित होती है इस पत्रिका में ही जयशंकर प्रसाद की पहली कहानी "ग्राम" प्रकाशित होती है| जयशंकर प्रसाद के अलावा इस पत्रिका में जी. पी. श्रीवास्तव, राजा राधिका रमण प्रसाद आदि कहानीकारों की कहानियां प्रकाशित होती हैं|
       जयशंकर प्रसाद की पहचान एक कवि के रूप में अधिक है कहानीकार के रूप में कम और कवि होने के कारण उनकी कहानियों में भावुकता और काव्यात्मक ता के दर्शन होते हैं| उन्होंने अपने कहानियों के माध्यम से देश प्रेम, भारतीय संस्कृति की गौरव गाथा, भारत की स्वर्णिम अतीत को पूर्ण गौरव और आदर्श के साथ प्रस्तुत किया| उन्होंने अपने कहानियों के द्वारा स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को भी नई चेतना प्रदान की| उनकी कहानियों में "पुरस्कार", "सिकंदर की शपथ", "चित्तौड़ का उद्धार", "सालबत्ती" प्रमुख हैं| जयशंकर प्रसाद ने प्रेम और सौंदर्य को  केंद्र में रखकर भी कहानियां लिखी हैं- "तानसेन", "गुलाम", "जहांआरा", "रसिया बालम" जैसी कहानियां महत्वपूर्ण हैं| इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद ने सामाजिक यथार्थ को केंद्र में रखकर "मधुवा" तथा "बिसाती" जैसी कहानियां भी लिखी हैं, किंतु उनकी कहानियों में विशेष तौर पर व्यक्तिवादी रचना दृष्टि के ही दर्शन होते हैं| वस्तुतः जयशंकर प्रसाद की धारा भाव वादी धारा है इस धारा के प्रमुख कहानीकार जयशंकर प्रसाद के अलावा चंडी प्रसाद, हृदयेश, वाचस्पति पाठक, रामकृष्ण दास, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मोहनलाल महतो हैं|
         प्रेमचंद के युग में पांडे बेचन शर्मा उग्र की चर्चा एक ऐसे कहानीकार के रूप में होती है जिन्होंने अपनी कहानियों के द्वारा समाज के  नग्न यथार्थ को प्रस्तुत किया| नग्न यथार्थ के कारण इनके साहित्य को अश्लील साहित्य और  घासलेटी साहित्य भी कहा गया, किंतु उग्र जी ने इन सब बातों की प्रवाह ना करते हुए युगीन सामाजिक, राजनीतिक जीवन पर करारा प्रहार किया है| उनकी कहानी की भाषा भी अत्यंत धारदार और सजीव है| उन्होंने अवैध संतान वेश्यावृत्ति, व्यभिचार, विधवाओं की स्थिति जैसे विषयों को बड़े ही  बेबाकी से उठाया है| इनकी प्रमुख कहानियों में "उसकी मां", "बलात्कार", "चिंगारी", "दोजक की आग" प्रमुख हैं|

प्रारंभिक हिंदी कहानी

प्रारंभिक हिंदी कहानी

          प्रारंभिक हिंदी कहानी कौन-सी थी ?इसको लेकर इतिहासकारों में विवाद है| कुछ रचनाकारों का मानना है कि अचार्य रामचंद्र शुक्ल की 1903 में प्रकाशित कहानी "11 वर्ष का समय" हिंदी की पहली कहानी है| यह कहानी "सरस्वती पत्रिका" में प्रकाशित हुई थी| इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने समय की तीन कहानियों को छांटते हैं| किशोरी लाल गोस्वामी कृत "इंदुमती", "11 वर्ष का समय" और बंगमहिला द्वारा लिखित "दुलाईवाला"| इन तीनों कहानियों में से आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि यदि मार्मिकता कि दृष्टि से देखा जाए तो, यदि "इंदुमती" किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो यह हिंदी की पहली मौलिक कहानी है इसके उपरांत "11 वर्ष का समय" फिर "दुलाईवाला" का नंबर आता है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात हिंदी की मौलिक कहानी कौन- सी है, इसको लेकर पुन: अनुसंधान शुरू हो जाता है| कुछ विद्वानों ने "इंदुमति" को Shakespeare  के "टेंपेस्ट" की छाया मानकर उसे मौलिक कहानी के दायरे से बाहर कर देते हैं| देवी प्रसाद वर्मा ने  वर्ष 1901  में "छत्तीसगढ़ मित्र" नामक पत्रिका में छपी  माधव  सप्रे की कहानी "एक टोकरी भर मिट्टी" को हिंदी की पहली कहानी माना है| जबकि डॉ बच्चन सिंह ने किशोरी लाल गोस्वामी की ही एक कहानी  "प्रणयनी परिणय" को हिंदी की पहली कहानी माना है| यह वह दौर है जब विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू हो गया है, इस दौर में ही कई कहानियां "सरस्वती पत्रिका" में प्रकाशित होती थी सरस्वती पत्रिका में ही किशोरीलाल कृत "इंदुमती" जो कि वर्णन प्रधान है........ "आपत्तियों का पहाड़ा" जोकि स्वप्न, कल्पना एवं रोमांच से भरपूर है| कार्तिक खत्री प्रसाद द्वारा लिखित "दामोदर राम की कहानी" आत्मकथा प्रधान है, प्रकाशित होती हैं| इसी दौर में हिंदी की पहली कहानी कुछ रचनाकारों ने 1915 में प्रकाशित "उसने कहा था" को माना है| यह कहानी चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने लिखी थी मधुरेश ने लिखा है "उसने कहा था वस्तुतः हिंदी की पहली कहानी है जो कि शिल्प विधान की दृष्टि से हिंदी कहानी को एक झटके में प्रौढ़ बना देती है यह कहानी अपनी मार्मिकता और सघन गठन की दृष्टि से बेजोड़ है|" इसी दौर में कुछ कहानियां ऐसी भी प्रकाशित होती हैं जो कि अपनी संवेदना के कारण पाठकों के ह्रदय को भी  छूती है| यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि भारतेंदु के पूर्व भी कई कहानियां प्रकाशित हुई थीं, जैसे- लल्लू लाल कृत "प्रेम सागर", सदल मिश्र कृत "नासिकेतोपाख्यान", इंशा अल्लाह खान कृत "रानी केतकी की कहानी"| सरस्वती पत्रिका में भी इसी दौर में, जिसे कुछ रचनाकारों ने प्रारंभ के 2 वर्ष का समय माना है, को आरंभिक हिंदी कहानी का काल का कहा है|
         इस काल की कहानियों में कथानक  स्थूल, विवरणात्मक और रहस्य रोमांच से भरपूर था| घटनाओं में चमत्कार मौजूद होते थे| इस काल की कहानियां अपरिपक्व और शिथिल भी मानी जाती है| इस काल के अन्य कहानी कारों में जैसे- भगवान दास कृत "प्लेग की चुड़ैल", केशव प्रसाद सिंह कृत "चंद्रलोक की यात्रा", गिरिजा दत्त वाजपेई कृत "पति का पवित्र प्रेम" जैसी कहानियों में वर्णनात्मकता, स्थूलता और आकस्मिकता दिखाई देती है| यहां ध्यान देने की बात है कि इस काल के कहानीकारों की कहानियों पर प्राचीन कथा साहित्य और लोक कथा साहित्य का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है| कुछ इतिहासकारों ने तो यह भी कहा है कि प्रारंभिक हिंदी कहानियों में कच्चापन मौजूद है और शिल्प की दृष्टि से भी यह बचकानी लगती है| यह कहानियां जीवन के यथार्थ से दूर हैं इनमें आदर्श और कल्पना ही मौजूद है, यह आदर्श और कल्पना व्यक्ति को सम्मोहित करती हैं, लेकिन संघर्ष के लिए प्रेरित नहीं करती|

आलोचना को परिभाषित करें

 आलोचना का तात्पर्य है, किसी वस्तु, रचना या कृति का मूल्यांकन करना| किसी भी रचना को समझने के लिए आलोचना को समझना आवश्यक है| बिना आलोचना...