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नाटक के विकास

हिंदी साहित्य में नाटक का विकास आधुनिक काल में होता है। अंग्रेजों के आगमन के साथ ही खड़ी बोली गद्य का विकास होता है। और भारतेंदु युग से अधिक नाटक का जन्म होता है परंतु, ध्यान देने की बात है कि नाट्य लेखन एवं अभिनय की परंपरा भारत में प्राचीन काल से मौजूद है संस्कृत साहित्य में नाटकों को लिखने और उनका रंगमंच पर प्रदर्शन करने की परंपरा मौजूद था। नाटक कैसे खेला जाए, रंग सज्जा कैसे किया जाये इन सभी के विषय में निर्देश भरतमुनि के नाट्य शास्त्र से प्राप्त होता है। प्राचीन काल में अभिनय को एक विशिष्ट गुण में भी भरतमुनि ने स्थापित किया। विदेशी आक्रमणों का भी भारतीय नाटक परंपरा पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। रंग निर्देश, अभिनय  आदि सभी पर  यवन आक्रमण के प्रभाव को देखा जा सकता है भारतीय नाटकों में आज भी युवानी का यवनिका शब्द का प्रयोग होता है। किंतु मध्य युग तक आते जाते जैसे जैसे विदेशी आक्रमण को होने लगता राज प्रसादी के साथ साथ विदेशी आक्रमणकारियों ने रंग शालाओं को भी नष्ट करना शुरू कर दिया। इसके कारण प्रेक्षा गृह एवं नाट्य प्रदर्शनों की परंपरा का भी पतन होने लगा। यज्ञवल्य और मनु ने नटो को हेय दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। और अपनी स्मृतियों में उसके प्रति हेय भावना व्यक्त किया ।इसके कारण रंग कर्मियों की सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी आई और ११वी -१२वी शताब्दी तक आते-आते नाट्य परंपरा काफी हद तक हो चुकी कमजोर हो चुकी थीं ।

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